राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोत

राजस्थान के ऐतिहासिक स्रोत

Geetanjali Academy- By Jagdish Takhar

 

 

राजस्थान का इतिहास

चौहान वंश का इतिहास (शाकम्भरी एवं अजमेर के चौहान)-

  • चौहानों का मूल स्थान जांगलदेश में सांभर के आसपास सपादलक्ष क्षेत्र को माना जाता है। इनकी प्रारंभिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। बिजौलिया शिलालेख के अनुसार सपादलक्ष के चौहान वंश का संस्थापक वासुदेव चौहान नामक व्यक्ति था जिसने 551 ई0 के आसपास इस वंश का शासन प्रारंभ किया। बिलौलिया शिलालेख के अनुसार सांभर झील का निर्माण भी इसी ने करवाया था। इसी के वंशज अजयपाल ने अजयमेरू दुर्ग का निर्माण करवाया था। 

 

अजयराज –

  • यह महान् शासक जिसने 1113 ई0 के लगभग अजयमेरू (अजमेर) बसाकर उसे अपनी राज्य की राजधानी बनाया उसने श्री अजयदेव नाम से चाँदी के सिक्के चलाए। 

 

अर्णोराज-

  • अजयराज के बाद अर्णोराज ने 1133 ई0 के लगभग अजयमेरू (अजमेर) का शासन संभाला, अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणकारियों को बुरी तरह हराकर अजमेर में आनासागर झील का निर्माण करवाया, अर्णोराज ने पुष्कर में वराह-मंदिर का निर्माण करवाया था। 

 

विग्रहराज-चतुर्थ (बीसलदेव)-

  • 1158 ई0 के आसपास अजमेर की गद्दी पर बैठा, राज्य की सीमा का अत्यधिक विस्तार किया। दिल्ली के तोमर शासक को पराजित किया व दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। विग्रहराज विद्वानों का आश्रयदाता होने के कारण कविबांधव से जाना जाता है। विग्रहराज ने स्वयं ने हरिकेलि नाटक की रचना की। अजमेर में संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया। जिसे बाद में ऐबक (1206-10) ने तुड़वा दिया व मस्जिद (ढ़ाई दिन का झोपड़ा) बनवा दी। विग्रहराज ने अजमेर में बीसलसागर बाँध का निर्माण भी करवाया। इसके काल को चौहान शासन का र्स्वणयुग भी कहा जाता है। 

 

पृथ्वीराज तृतीय-

  • अजमेर के चौहान वंश का अंतिम प्रतापी शासक पृथ्वीराज तृतीय था जिसने 1177 में पिता सोमेश्वर की मृत्यु के उपरांत 11 वर्ष की आयु में अजमेर का सिंहासन प्राप्त किया, इसकी माता कपूरीदेवी ने प्रारंभ में बड़ी कुशलता से राज्य को संभाला।

 

युद्ध

  • तराईन का प्रथम युद्ध 1191 पृथ्वीराज-गौरी के मध्यः पृथ्वीराज विजयी हुआ। 
  • तराईन का द्वितीय युद्ध 1192 पृथ्वीराज-गौरी के मध्यः गौरी विजयी हुआ। 

 

विद्वान 

  • पृथ्वीराज स्वयं बहुत बड़ा विद्वान था। विद्वानों का संरक्षक था उसके दरबार में चन्दबरदाई (पृथ्वीराज रासो) जयानक, जर्नादन व नागीश्वर आदि विद्वानों को आश्रय प्राप्त था। 

 

रणथम्भौर के चौहान

  • तराईन के द्वितीय युद्ध के बाद पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज ने कुछ समय बाद रणथंभौर में अपना शासन स्थापित किया। 
  • रणथंभौर वंश का अंतिम प्रतापी शासक हम्मीर देव था। इसी समय दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने 1301 में आक्रमण करके रणथंभौर को जीत लिया। 

 

जालौर के चौहान

  • जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुर था। संस्थापक कीर्तिपाल चौहान था। 
  • 1309 में अलाउद्दीन खिलजी ने यहां आक्रमण किया इस समय यहां का शासक कान्हड़देव था। 
  • किले के भीतर अलाउद्दीन ने अलाउद्दीन मस्जिद बनवाई। 
  • युद्ध की जानकारी पद्मनाथ के कान्हड़देव प्रबंध से मिलती है। 

 

सिरोही के चौहान

  • सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था। 
  • जिसकी स्थापना 1131 में लुंबा द्वारा की गई थी व राजधानी चन्द्रावती को बनाया। 
  • सिरोही नगर की स्थापना 1425 ई0 में सहसामल नामक राजा ने की। 
  • 1823 ई0 में यहां के शासक शिवसिंह में ई0आई0सी0 (ईस्ट इंडिया कम्पनी) की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 

 

हाड़ौती के चौहान

बूँदी राज्य का इतिहास 

  • 1342 में देवा ने बूँदी में हाड़ा चौहान वंश का शासन स्थापित किया। 
  • बूँदी  का नाम बूँदी मीणा के नाम पर पड़ा। 
  • हाड़ौती में वर्तमान में कोटा, बूँदी व बारां क्षेत्र आते है। 
  • 1631 में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने कोटा को बूँदी से स्वतंत्र करके बूँदी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को दे दिया। 
  • 1818 ई0 में बूँदी के शासक विष्णुसिंह ने ई0आई0सी0 की अधीनता स्वीकार कर ली। 

 

कोटा राज्य का इतिहास 

  • कोटा प्रारंभ में बूँदी रियायत का ही एक भाग था यहां हाड़ा चौहानों का शासन था। 
  • शाहजहाँ के समय बूँदी नरेश रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को कोटा का पृथक राज्य देकर उसे बूँदी से स्वतंत्र कर दिया तभी से कोटा स्वतंत्रता राज्य के रूप में स्वतंत्र है। 
  • कोटा पूर्व में कोटिया भील के नियंत्रण में था जिसे बूँदी के चौहान वंश के संस्थापक देवा के पौत्र जैत्रसिंह ने मारकर अपने अधिकार में कर लिया कोटिया भील के नाम से इसका नाम कोटा पड़ा। 
  • दिसम्बर 1817 में यहाँ के शासक जालिमसिंह झाला ने ई0आई0सी0 से संधि कर ली। 

 

मेवाड़ राज्य का इतिहास 

  • उदयपुर (मेवाड़) का प्राचीन नाम शिवि, प्राग्वाट, मेदपाट आदि रहे है। इस क्षेत्र पर पहले मेद अर्थात् मेव या मेर जाति का अधिकार रहने से इसका नाम मेदपाट (मेवाड़) पड़ा। 
  • मेवाड़ इतिहास की जानकारी गुहिल (गुहादित्य) के काल से प्रारंभ होती है। गुहादित्य (गुहिल) ने 566 ई0 के आसपास मेवाड़ में गुहिल वंश की नीव डाली। इसके पिता का नाम शिलादित्य व माता का नाम पुष्पावती था। 

 

बप्पा रावल  (734-753)-

  • यह मेवाड़ राज्य का प्रतापी शासक था। इसे मेवाड़ राज्य का वास्तविक संस्थापक भी कहा जाता है। 
  • इसका मूल नाम कालभोज था 
  • 734 में बप्पा ने मौर्य राजा मान से चित्तौड़ को जीता। 

 

जैत्रसिंह- (1213-1253)

  • जैत्रसिंह के समय इल्तुतमिश ने मेवाड़ की राजधानी नागदा पर आक्रमण करके क्षति पहुँचाई तब जैत्रसिंह ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को बनाया। 

 

रतनसिंह-

  • 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। 
  • इस आक्रमण के समय अमीर खुसरों अलाउद्दीन खिलजी के साथ था। 
  • रतनसिंह को अलाउद्दीन ने धोखे से कैद कर लिया बाद में गोरा व बादल ने अलाउद्दीन पर भयंकर आक्रमण किया। 
  • रानी पद्मावती ने अन्य स्त्रियों के साथ जौहर किया। 
  • अलाउद्दीन ने चित्तौड़ अपने पुत्र खिज्रखां को सौंप दिया और उसका नाम बदलकर खिज्राबाद कर दिया। 
  • अलाउद्दीन की मृत्यु के उपरांत राणा हम्मीर ने पुनः चित्तौड़ को जीतकर सिसोदिया वंश की पुनः स्थापना की। 
  • 1382 में लक्षसिंह (लाखा) मेवाड की गद्दी पर बैठा उसके समय में एक बंजारे ने पिछोला झील का निर्माण करवाया। 

 

महाराणा कुंभा 1433-68 –

  • कुम्भा को हिंदू सुरताण व अभिनव भरताचार्य भी कहा जाता है। 
  • पिता का नाम मोकल व माता का नाम सौभाग्यदेवी था। 
  • कुम्भा ने सांरगपुर के युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी को पराजित किया। 
  • विजय स्मृति हेतु चित्तौड़ किले के भीतर विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया (1440-48) इसकी ऊँचाई 120 फीट है व 9 मंजिला है। 
  • इसे भारतीय मूर्तिकला का विश्व कोष भी कहा जाता है। 
  • वास्तुकार जेता व उसके दो पुत्र नापा व पूंजा थे। 
  • विजय स्तंभ प्रशस्ति के रचयिता कवि अत्रि थे। 
  • कुम्भा ने दो विजय स्तम्भ बनवाए एक चित्तौडगढ़ के दुर्ग भीतर व दूसरा कुम्भलगढ़ दुर्ग के अंदर। 
  • कुम्भा ने कुंभश्याम मंदिर, आदिवराह मंदिर, श्रृंगार  गौर मंदिर, मीरा मंदिर, कुंभलगढ़ दुर्ग के भीतर कुंभस्वामी का मंदिर बनवाया। 
  • मेवाड़ में 84 दुर्ग हैं इनमें 32 दुर्गों का निर्माण कंुभा ने करवाया था। 
  • कुंभा के समय रणकपुर जैन मंदिर का निर्माण 1439 ई0 में जैन व्यापारी धरनक शाह ने करवाया था। 

 

महाराणा कुंभा के राज्याश्रित विद्वान व कलाकार-

  • कुम्भा एक कवि, नाटककार, टीकाकार, संगीताचार्य था उसने संगीतराज, संगीत मीमांसा, रसिकप्रिया व सुधा प्रबंध, कामराज इतिसार नामक ग्रंथो की रचना की। 
  • सारंग व्यास – ये संगीताचार्य थे कुंभा के संगीत गुरू। 
  • कान्ह व्यास-दरबारी कवि एकलिंग महात्म्य के रचनाकार।
  • रमाबाई – कुम्भा की पुत्री (संगीतशास्त्र की ज्ञाता)।
  • अत्रि-संस्कृत के महान् कवि कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति की रचना प्रारंभ की जिसे उनकी मृत्यु उपरांत उनके पुत्र महेश भट्ट ने पूर्ण किया। 
  • मंडन-शिल्पशास्त्र के ज्ञाता अनेक ग्रन्थ लिखे जो क्रमशः प्रासाद मंडन, राजवल्ल्भमंडन, रूप मंडन, देवमूर्ति प्रकरण वास्तु मंडन, वैद्य मंडन आदि। 
  • कुम्भा की हत्या पुत्र उदयकरण (उदा) द्वारा 1468 ई0 में की गई। 

 

संग्राम सिंह (महाराणा सांगा 1509-27)-

  • खातोली का युद्ध-1517 में सांगा व दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोदी के मध्य सांगा की विजय हुई। 
  • गागरोन का युद्ध- 1518 में राणा ने मालवा शासक महमूद खिलजी द्वितीय व गुजरात शासक मुजफ्फर शाह द्वितीय को पराजित किया। 
  • बयाना युद्ध-फरवरी, 1527 में सांगा ने बाबर की सेना को पराजित कर बयाना का किला जीता। 
  • खानवा युद्ध – मार्च, 1527 बाबर ने सांगा को पराजित किया। 
  • सांगा की मृत्यु 1528 में दौसा जिले की बसवा तहसील में हुई। 
  • सांगा की मृत्यु के उपरांत विक्रमादित्य शासक बना (नाबालिक) संरक्षिक सांगा की पत्नी कर्णवती बनी। 1533 में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया सहायता हेतु कर्णवती ने हुमायूं के पास राखी भेजी हुमायूं ने कोई सहायता नहीं की व बहादुरशाह का मेवाड़ पर कब्जा हो गया। 

 

उदयसिंह (1537-72)

  • उदयसिंह के समय अकबर ने 1567 पर चित्तौड़ में आक्रमण किया व उसे जीत लिया। 
  • उदयसिंह के दो सेनापति जयमल व फत्ता (फतहसिंह) ने अकबर का बहादुरी से मुकाबला किया किंतु वीरगति को प्राप्त हुए। 
  • उदयसिंह ने गोगुन्दा को अपनी नई राजधानी बनाया व उदयपुर शहर बसाया। 

 

महाराणा प्रताप (1572-97)

  • 1572 में राणाप्रताप मेवाड़ के राज्यसिंहासन पर बैठा जिसका नाम न केवल राजस्थान के इतिहास में अपितु विश्व इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिया गया है। 
  • 1576 में प्रताप व अकबर के सेनापति मानसिंह के
  • मध्य हल्दीघाटी का युद्ध हुआ जिसमें राणा पराजित हुआ।
  • इस युद्ध में अफगान सेनापति हकीम खाँ सूर राणा की तरफ से लड़ा।
  • भामा शाह ने राणा को आर्थिक सहायता पहुँचाई। 
  • हल्दीघाटी को मेवाड़ की थर्मोपोली भी कहा जाता है। 

 

अमरसिंह (1597-1620)

  • मुगल मेवाड़ संधि 1615 में मेवाड़ शासक अमरसिंह ने मुगल शासक जहाँगीर की अधीनता स्वीकार कर ली। 
  • चित्रकला का सर्वाधिक विकास अमरसिंह के समय में ही हुआ था। 

 

जगतसिंह प्रथम

  • पिछोला झील में जैनमंदिर महल बनवाया। जगतसिंह के समय में ही प्रतापगढ़ की जागीर
  •  मुगल बादशाह शाहजहाँ ने मेवाड़ से स्वतंत्र कर दी। 

 

राजसिंह 1652-80-

  • जोधपुर के शासक अजीतसिंह को संरक्षण दिया। 
  • राजसमंद जिलें में (कांकरोली) द्वाराकाधीश मंदिर बनवाया। 
  • उदयपुर में अम्बामाता मंदिर बनवाया। 
  • राजसमंद झील का निर्माण करवाया। 

 

जयसिंह 1680-98

  • गोमती नदी पर जयसमंद झील का निर्माण करवाया जिसे ढ़ेबर झील भी कहा जाता है। 

 

संग्राम सिंह 1710-1734-

  • सहेलियों की बाड़ी बनवाई। 
  • 1734 में हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता की। 

 

भीमसिंह-कृष्णकुमारी विवाह

  • 1818 में भीमसिंह ने ई0आई0सी0 की अधीनता स्वीकार कर ली। 

 

मारवाड़ का इतिहास – मारवाड़ अंचल में जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर, जालौर, नागौर व पाली जिलें आते हैं।

  • मारवाड़ के राठौड़ वंश की स्थापना राव सीहा ने 13वीं शताब्दी में किया। 
  • राव चूडा ने मंडौर को मारवाड़ की राजधानी बनाया व साम्राज्य का विस्तार किया। 

 

राव जोधा-

  • जोधपुर शहर 1459 ई0 में बसाया व मंडौर की जगह जोधपुर को नई राजधानी बनाया। 
  • चिड़ियाटूक पहाड़ी पर मेहरानगढ़ का दुर्ग बनवाया। 

 

राव मालदेव-(1531-62) – मारवाड़ का सबसे प्रतापी व योग्य शासक था।

  • विवाह जैसलमेर की राजकुमारी उम्मादे के साथ हुआ जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है। 
  • सुमेल युद्ध – यह युद्ध 1544 ई0 में मारवाड़ के शासक मालदेव व दिल्ली के सुल्तान शेरशाह सूरी के मध्य लड़ा गया था जिसमें शेरशाह की विजय हुई। 
  • मालदेव ने पोकरण का किला, मालकोट किला (मेड़ता) व सोजत का किला बनवाया था। 

 

चन्द्रसेन 1562-81-

  • मारवाड़ का प्रताप भी कहा जाता है मोटा राजा उदयसिंह (1583-95) अकबर की अधीनता स्वीकार करके अपनी पुत्री जगतगोसाई का विवाह जहाँगीर से किया जिससे खुरर्म (शाहजहाँ) उत्पन्न हुआ। 

 

जसवंत सिंह प्रथम (1638-78) –

  • दुर्गादास इनका सेनापति था जिसने अजीत सिंह को मारवाड़ की गद्दी पर बैठाने हेतु 30 साल युद्ध लड़ा। 
  • अजीतसिंह ने अपनी पुत्री इन्द्रकुमारी का विवाह फर्रूखशियर से किया। 

 

मानसिंह (1803-43) – ने नाथ संप्रदाय के महामंदिर का निर्माण करवाया था। 

आमेर के कछवाहों का इतिहास-

  • कछवाहा राजपूत अपने को भगवान रामचंद्र के वंशज बताते थे। 
  • नरवर (मध्यप्रदेश) के शासक दुल्हैराय ने 1137 में कछवाहा वंश की स्थापना की व रामगढ़ में अपनी कुलदेवी जमुवा माता का मंदिर बनवाया। 
  • पुत्र कोकिल देव ने 1207 में आमेर को राजधानी बनाई। 

 

राजा भारमल (1547-73)-

  • 1562 में अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाला राजस्थान का पहला राज्य था, पुत्री हरखा बाई का विवाह अकबर से किया। 

 

भगवानदास (1573-89)

  • अपनी पुत्री मानबाई का विवाह सलीम (जहाँगीर) से किया जिससे खुसरों का जन्म हुआ। 

 

मानसिंह प्रथम (1589-1614)-

  • मथुरा में राधा गोविन्द का मंदिर बनवाया। 
  • मानसिंह के भाई माधोसिंह के संरक्षण में पुण्डरीक विट्ठल ने रागचन्द्रोदय, राग कल्पदु्रम नर्तन निर्णय ग्रन्थ लिखे। 

 

मिर्जा राजा जयसिंह (1621-67) -जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब का समकालीन मिर्जा की उपाधि शाहजहाँ ने दी।

  • पुरंदर की संधि 1765 मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी के मध्य।
  • दरबारी कवि बिहारी (बिहारी सतसई लिखी)।

 

सवाई जयसिंह (द्वितीय) (1700-43)- सवाई की उपाधि औरंगजेब द्वारा दी गई।

  • हुरड़ा सम्मेलन (1734) बुलाया। 
  • 1727 में जयनगर (जयपुर) बसाया (वास्तुविद् पं0 विद्याधर भट्टाचार्य) जयगढ़ व नाहरगढ़ का किला बनवाया। 
  • जयपुर, दिल्ली, उज्जैन, बनारस व मथुरा में वेधशालाएँ बनवाई।
  • नक्षत्रों की सारणी जीज मुहम्मद शाही बनवाई। 
  • जयसिंह कारिका नामक ज्योतिष ग्रंथ की रचना की। 
  • जयपुर के चन्द्रमहल (सिटी पैलेस) व जलमहल का निर्माण करवाया। 
  • जयसिंह अंतिम हिंदू नरेश जिसने अश्वमेघ (1740) यज्ञ करवाया जिसका प्रधान पुरोहित पुण्डरीक रत्नाकार था। 
  • सवाई जयसिंह की सबसे बड़ी भूल यह रही कि उसने बूँदी के उत्तराधिकार के झगड़े में पड़कर मराठों को आमंत्रित किया। 

 

सवाई ईश्वरी सिंह (1748-50)-

  • 1747 में राजमहल युद्ध (टोंक) में इसने माधोसिंह, मराठे व कोटा, बूँदी की संयुक्त सेना को पराजित किया। 
  • विजय के उपलक्ष्य में ईसरलाट (सरगासूली) का निर्माण करवाया। 
  • 1750 में मल्हार राव होल्कर ने जयपुर पर आक्रमण किया परेशान होकर ईश्वरी सिंह ने आत्महत्या कर ली। 

 

माधोसिंह प्रथम (1750-68)-

  • मराठा सैनिकों का जयपुर में कत्लेआम किया। 
  • 1763 में सवाई माधोपुर नगर बसाया। 
  • जयपुर में मोती डूँगरी महलों का निर्माण करवाया। 

 

सवाई प्रतापसिंह (1778-1803)-

  • ब्रजनिधि नाम से काव्य रचना करते थें 
  • जयपुर में संगीत सम्मेलन करवाकर राधागोविन्द संगीत सार ग्रन्थ की रचना करवाई। 
  • 1799 में हवामहल बनवाया। 

 

रामसिंह द्वितीय (1835-80)-जयपुर को गुलाबी रंग से रंगवाया। 

  • मेजर जॉन लुडली ने 1843 में सती प्रथा, दास प्रथा व कन्या वध, दहेज प्रथा पर रोक लगाई। 
  • 1857 में अंग्रेजों का वफादारी से साथ दिया फलस्वरूप अंग्रेजों ने सितार-ए-हिन्द की उपाधि प्रदान की। 
  • 1876 में प्रिंस ऑफ वेल्स ने जयपुर की यात्रा की उनकी यात्रा की स्मृति में अल्बर्ट हॉल (म्यूजियम) बनवाया व शिलान्यास पिं्रस अल्बर्ट के हाथों से करवाया। 
  • 1845 ई0 में महाराजा कॉलेज व संस्कृत कॉलेज बनवाया।  
  • विनयसिंह ने लाल किला व सिलिसेट झील बनवाई। 
  • 1803 ई0 में राव बख्तावर सिंह ने ई0आई0सी0 की अधीनता स्वीकार की। 

 

भरतपुर का जाट वंश – चूड़ामन ने भरतपुर राज्य की स्थापना की। 

  • बदनसिंह ने 1725 में डीग के महलों का निर्माण करवाया। 
  • सूरजमल ने लोहागढ़ का किला बनवाया। 
  • 1803 में रणजीत सिंह ने ई0आई0सी0 से संधि कर ली। 

 

जैसलमेर का भाटी वंश– चन्द्रवंशी यादव व श्रीकृष्ण के वंशज मानते है। शासक भट्टी ने 285 ई0 में भटनेर (हनुमानगढ़) स्थापना की। 

    • इसके वंशज भाटी कहलाए। इसी वंश के शासक जैसल ने 1155 ई0 में जैसलमेर स्थापना। 

 

  • राव जैसल ने सोनारगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया। 

 

  • मूलराज ने 1818 ई0 में ई0आई0सी0 की अधीनता स्वीकार कर ली। 

 

 

 

करौली का इतिहास-

  • करौली के यदुवंश की स्थापना विजयपाल यादव ने 1040 ई0 में की। 
  • शासक तिमनपाल ने तिमनगढ़ का दुर्ग बनवाया। 
  • 1817 में ई0आई0सी0 की अधीनता स्वीकार कर ली। 
  • 19 जुलाई, 1997 को करौली पृथक जिला (32वाँ) बना। 

 

महत्वपूर्ण तथ्य-

  • बीकानेर व जैसलमेर राज्य मराठा व पिंडारी आक्रमण से बचे रहे। 
  • 1817 में अंग्रेजों ने अमीर खाँ पिंडारी को टोंक का नवाब बनाया। 
  • 1817 से 1833 के मध्य राजस्थान के सभी शासकों ने ई0आई0सी0 संधि कर ली इस समय भारत का जी.जी. लार्ड हेस्टिग्स था उसने चार्ल्स मैटकॉफ को यह कार्य सौंपा। 
  • सबसे पहले 1817 में करौली ने एवं सबसे बाद में 1823 में सिरोही ने ई.आई.सी. से संधि की।
पत्र का नाम संस्थापक 
प्रताप  कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी व विजय सिंह पथिक
राजस्थान समाचार अजमेर (1889) मुंशी समर्थदान(राज. का पहला हिंदी दैनिक पत्र)
राजस्थान केसरी वर्धा (1920) विजयसिंह पथिक, संपादक थे रामनारायण चौधरी वित्तीय सहायता जमनालाल बजाज से मिलती थी। 
नवीन राजस्थान (तरूण राजस्थान) अजमेर (1921) विजय सिंह पथिक
नवज्योति अजमेर (1936) रामनारायण चौधरी बाद में दुर्गाप्रसाद ने संभाला। 
प्रजासेवक जोधपुर, अचलेश्वर प्रसाद
राजपूताना गजट मौलवी मुराद अली, अजमेर से। 
अखंड भारत बंबई, जयनारायण व्यास।
अग्नीबाण ब्यावर, जयनारायण व्यास, राजस्थानी भाषा का प्रथम राजनैतिक पत्र।
राजस्थान  ब्यावर, ऋषिदंत मेहता।
जयभूमि जयपुर, गुलाबचंद काला।
राजस्थान टाइम्स जयपुर, वासुदेव काला।
लोकवाणी  जयपुर, देवीशंकर तिवारी (जमनालाल बजाज की स्मृति में)।
देश हितेषी अजमेर मुंशी मुन्नालाल
 स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गठित संस्थाएँ–
सर्वहितकारिणी सभा 1907 बीकानेर, कन्हैयालाल ढूँढ़, स्वामी गोपालदास।
मारवाड़ सेवा संघ 1920, जोधपुर, चांदमल सुराना ।
मारवाड़ हितकारिणी सभा  मारवाड़ ।
हिंदी साहित्य समिति भरतपुर, महत्त जगन्नाथ दास।
नागरी प्रचारिणी सभा धौलपुर, ज्वालाप्रसाद जिज्ञासु व जौहरीलाल इंदु (इसने हिंदी के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका)।
राजस्थान सेवा संघ 1919 वर्धा, अर्जुनलाल सेठी, पथिक, केसरीसिंह बारहठ रामनारायण चौधरी, महात्मा गांधी के परामर्श से 1920 में अजमेर में स्थनांतरित।
वीर भारत समाज विजयसिंह पथिक ।
सम्प सभा स्वामी गोविंद गिरि।
वर्धमान विद्यालय अजमेर, अर्जुनलाल सेठी, बाद में जयपुर में स्थानांतरण
सर्व सेवा संघ सर्वोदयी श्री सिद्धराम डढ्ढ़ा।
बागड़ सेवा मंदिर डूँगरपुर, भांगीलाल पांड्या।
बांडलाई आश्रम सागवाड़ा, माणिक्यलाल वर्मा। 
राजस्थान दलित जाति संघ अमृतलाल यादव ।
हरिजन सेवक संघ रामनारायण चौधरी।

 

1857 की क्रांति एवं राजस्थान 

  • लॉर्ड डलहौजी (1848) की हड़पनीति (गोदनिषेध नीति) के कारण संपूर्ण भारत में अंग्रेजी के प्रति असंतोष बढ़ने लगा। इसके अलावा सेना में एनफील्ड राइफलों में सुअर व गाय की चर्बीं वाले कारतूसों के प्रयोग से सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। 29 मार्च 1857 ई. में बैरकपुर छावनी (उत्तरप्रदेश) में मंगल पांडे ने एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी को गोली मार दी। मंगल पा.डे को बाद में फाँसी दे दी गई। 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इस क्रांति को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा जाता है। 
  • इस समय भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग थे व राजस्थान के ए.जी.जी. जॉर्ज पैट्रिक लोरेन्स थे। मारवाड़ में मार्क मैसन, मेवाड़ में मेजर शाँवर्स, कोटा में मेजर बर्टन तथा जयपुर में कर्नल ईडन पॉलिटिकल एजेन्ट थे। अजमेर राजस्थान में ब्रिटिश सत्ता का प्रमुख केंद्र था। 
  • राजस्थान में अजमेर राजनीतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र था। अजमेर में राजपूताना एजेन्सी थी जिसका मुख्य अधिकारी ए.जी.जी था। 1857 की क्रांति से पूर्व ही सारे राजस्थान में ब्रिटिश विरोधी वातावरण तैयार हो चुका था। जोधपुर का शासक महाराजा मानसिंह अंग्रेजों का प्रबल विरोधी बन गया उसने अंग्रेजों की मैत्री संधि को ठुकरा दिया था। इसने जसवंत राव होल्कर, अप्पा साहब भौंसले आदि की सहायता की। मानसिंह ने पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह से संपर्क स्थापित किया। मानसिंह अजमेर में आयोजित भव्य दरबार में भी नहीं गया, जिससे ब्रिटिश सरकार नाराज हो गई। जीवन भर ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में लगा रहा। तात्कालीन कवियों ने डूंगजी, जवाहर जी जैसे डाकुओं की प्रशंसा के काव्य लिखे जिन्होंने अंग्रेजी छावनी तथा सरकारी कोष को लूटा। 
  • 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों की मदद करने में सबसे आगे बीकानेर का राजा सरदार सिंह था। ये राजस्थान के एक मात्र ऐसे शासक थे जो स्वयं अपनी सेना लेकर अंग्रेजों की सहायता के लिए राजपुताने से बाहर गए थे। 
  • 1857 के विद्रोह के समय राजस्थान में 6 सैनिक छावनियाँ थी इनमें सभी सैनिक भारतीय थे-
  1. नसीराबाद (अजमेर)     2. नीमच (मध्यप्रदेश)      3. देवली (टोंक)          
  2. एरनपुरा (जोधपुर वर्तमान-सिरोही)  5. ब्यावर (अजमेर) 6. खेरवाड़ा (उदयपुर)

 

  • ब्यावर (अजमेर) व खेरवाड़ा (उदयपुर) की छावनी के सैनिकों ने विद्रोह में भाग नहीं लिया। 

आऊवा की क्रांति-

  • एरनपुरा के सैनिक दिल्ली के रास्ते में आऊवा (पाली) नामक स्थान पर ठहरे। आऊवा के ठाकुर कुशाल सिंह चंपावत ने इन सैनिकों का नेतृत्व किया। 8 सितंबर 1857 ई. को कुशाल सिंह चंपावत ने जोधपुर के महाराजा तख्त सिंह तथा अंग्रेज कैप्टन हीथकोट की संयुक्त सेना को बिथौड़ा (पाली) नामक स्थान पर हराया। 18 सितंबर 1857 को जनरल पैट्रिक लोरेन्स व मार्क मैसन आऊवा पहुंचे जहां उनका ‘चेलावास‘ नामक स्थान पर कुशाल सिंह से युद्ध हुआ। कुशाल सिंह व इसकी सेना ने मार्क मैसन का सिर काटकर आऊवा के किले के दरवाजे पर टाँग दिया। इस युद्ध को ‘गोरो व कालो‘ का युद्ध कहा गया है।
  • 20 जनवरी 1858 को कर्नल होम्स की सेना ने कुशाल सिंह की सेना को हरा दिया तब कुशाल सिंह सलूंबर (उदयपुर) चले गए। 
  • अंग्रेज इस युद्ध के बाद सुगाली देवी (महाकाली) की मूर्ति को अजमेर ले गए जो आज भी राजकीय संग्रहालय, अजमेर में सुरक्षित है। 
  • कोटा में क्रांति-कोटा का पोलिटिकल एजेंट मेजर बर्टन था। 15 अक्टूबर 1857 को कोटा में विद्रोह हो गया यहां जयदयाल व मेहराब खां लोगों में क्रांति की भावना भर रहे थे। क्राांतिकारियों ने मेजर बर्टन, उसके दो पुत्रों व एक डॉक्टर की हत्या कर दी। मेजर बर्टन का सिर काटकर पूरे शहर में घुमाया। अंत में 3 मार्च 1858 ई. में जनरल राबर्टस की सेना ने क्रांतिकारियों को हरा दिया। अंग्रेजों का साथ कोटा महाराज मदनपाल ने दिया। 
  • कोटा का संघर्ष सर्वाधिक सुनियोजित व सुनियंत्रित था। कोटा पर लगभग छः माह तक क्रांतिकारियों का अधिकार रहा। 

 

  • ताँत्या टोपे – 1857 की क्रांति में ताँत्या टोपे ग्वालियर का विद्रोही नेता था। 8 अगस्त 1857 ई. को ताँत्या टोपे मराठा सेना सहित सर्वप्रथम भीलवाड़ा पहुंचे वहां पर जनरल रॉबर्टस की सेना ने उन्हें हरा दिया। इसके बाद व झालावाड़ होते हुए ग्वालियर चले गए 11 दिसंबर 1857 में ताँत्या टोपे पुनः मेवाड़ आए व बांसवाड़ा पर अधिकार कर लिया। यहां से वो जयपुर होते हुए सीकर पहुंचे तो वहां कर्नल होम्स की सेना ने उन्हें हरा दिया। अंत में नरवर के जागीरदार मानसिंह नरूका ने विश्वासघात कर ताँत्या टोपे को अंग्रेजों के हाथ पकड़वा दिया। 18 अप्रैल 1859 में उन्हें सिप्री (मध्यप्रदेश) में फाँसी दे दी गई। 
  • इस प्रकार मारवाड़, मेवाड़, और जयपुर नरेशों से ताँत्या टोपे को किसी प्रकार का सहयोग नहीं मिला। राजस्थान में किसान आंदोलनों का प्रमुख कारण जागीरदारों द्वारा किसानों से खिराज के अलावा लगभग 300 प्रकार की लागतें वसूलना था जैसे-तलवार बंधाई, चंवरी आदि। इसके अलावा ये निःशुल्क श्रम (बेगार) भी करवाते थे। 

 

राजस्थान के किसान आंदोलन 

1.बिजोलिया किसान आंदोलन (1897-1941ई.)-

यह राजस्थान का प्रथम संगठित किसान आंदोलन था। इस आंदोलन के प्रवर्तक साधू सीताराम दास थे। बिजोलिया (भीलवाड़ा) मेवाड़ राज्य का प्रथम श्रेणी का ठिकाना था। बिजोलिया की स्थापना अशोक परमार ने की। अशोक परमार खानवा के युद्ध (1527 ई.) में राणा सांगा की तरफ से युद्ध लड़ा था। उसकी वीरता से प्रभावित होकर सांगा ने उसे ऊपरमाल (भैंसरोड़गढ़ से बिजोलिया के बीच का स्थान) की जागीर दे दी। इस ऊपरमाल का प्रमुख ठिकाना बिजोलिया था। 

  • बिजोलिया में भू-राजस्व की लाटा एवं कूँता पद्धति प्रचलित थी। इसके अनुसार यदि किसान राजस्व का भुगतान न करे तो उसे भूमि से बेदखल कर दिया जाता था। 
  • 1897 में बिजोलिया के रावकृष्ण सिंह द्वारा जनता से भारी लगान व 84 प्रकार का कर लिया जाता था इनमें खिचड़ी कर, कमठा कर, पतल कर प्रमुख थे। वहां से किसानों ने नानजी पटेल व ठाकरी पटेल को उदयपुर भेजकर इसकी शिकायत महाराणा फतेह सिंह से की परंतु फतेह सिंह ने कोई कार्यवाही नहीं की। इससे रावकृष्ण सिंह के हौसले बढ़ गए और उसने ऊपरमाल की जनता पर 1903 में चंवरी नामक कर भी लगा दिया। इस कर के अनुसार जागीर के प्रत्येक व्यक्ति को अपनी लड़की की शादी के अवसर पर पांच रूपये राजकोष में देने होते थे। इसके विरोधी में किसानों ने लड़कियों की शादी करना बंद कर दिया व खेतों में काम करना बंद कर दिया तब कृष्ण सिंह ने चंवरी कर हटा लिया। 
  • कृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद 1906 में उसके उत्तराधिकारी पृथ्वीराज ने किसानों पर तलवार बंधाई (उत्तराधिकारी शुल्क) नामक कर लगा दिया व लगान की रकम दुगुनी कर दी। किसानों ने साधुसीताराम दास के नेतृत्व में आंदोलन किया। 1914 में पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद यह आंदोलन कुछ समय के लिए रूक गया। 
  • 1916 ई. में साधु सीतारामदास ने किसान पंच बोर्ड की स्थापना की। 
  • 1916 ई. में साधु सीताराम दास के आग्रह पर विजय सिंह पथिक (भूपसिंह) इस आंदोलन से जुड़ गए और पथिक ने 1916 से 1927 ई. तक इस आंदोलन का नेतृत्व किया। पथिक ने 1917 में ऊपरमाल पंच बोर्ड की स्थापना की। पथिक ने रक्षाबंधन के अवसर पर बिजोलिया के किसानों की तरफ से प्रमुख क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी को राखी भेजी।
  • कानपुर से प्रकाशित समाचार पत्र ‘प्रताप‘ के माध्यम से पथिक ने बिजोलिया आंदोलन को पूरे भारत में चर्चा का विषय बना दिया। 
  • बिजोलिया के किसानों की मांगों की जांच के लिए अप्रैल 1919 में बिंदुलाल भट्टाचार्य की अध्यक्षता में प्रथम जांच आयोग बैठा। इस आयोग ने लगान समाप्त करने की अनुशंसा की परंतु इसका पालन नहीं हुआ। 
  • फरवरी 1922 में ए.जी.जी., हॉलैंड को बिजोलिया भेजा गया। इन्होंने किसानों से समझौता किया इसके अनुसार 84 में से 35 लागते समाप्त कर दी गई और पंचायतों को भी मान्यता मिल गई। यह समझौता अधिक देर तक लागू न हो सका। 
  • 1927 में पथिक व माणिक्य लाल वर्मा में मतभेद हो गए और विजय सिंह पथिक इस आंदोलन से पृथक हो गए तब 1927 में जमनालाल बजाज ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। 
  • अंत में 1941 में मेवाड़ के प्रधानमंत्री सर टी.विजय राघवाचार्य व राजस्व मंत्री मोहन सिंह मेहता का किसानों से समझौता हो गया और 44 वर्ष बाद (1941) में यह आंदोलन समाप्त हो गया। 
  • यह भारत वर्ष का प्रथम व्यापक और शक्तिशाली किसान आंदोलन था। 

 

2.बेगूँ किसान आंदोलन (चित्तौड़गढ़) –

1921 ई. में बेगूँ के किसान भी बिजोलिया की तर्ज पर मेनाल (भीलवाड़ा) नामक स्थान पर लगान व बेगार के विरोध में एकत्र हुए। पथिक ने इस आंदोलन का नेतृत्व रामनारायण चौधरी को सौंपा। दो वर्ष के बाद (1923 ई.) बेगूँ के ठाकुर अनूप सिंह व राजस्थान सेवा संघ (किसानों) के मध्य समझौता हो गया परंतु अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को बोल्शैविक फैसला कहकर अनूपसिंह को उदयपुर में नजरबंद कर दिया। 

  • जून, 1923 में किसानों की समस्या को हल करने के लिए ट्रैन्च आयोग गठित हुआ। इस आयोग के निर्णय पर विचार करने के लिए किसान गोविंदपुरा (भीलवाड़ा) में एकत्र हुए तब सेना ने किसानों को घेरकर गोलियां चलवा दी जिससे रूपाजी व कृपाजी नामक दो किसान शहीद हो गए। 
  • इसके बाद विजय सिंह पथिक ने स्वयं बेगूँ आंदोलन की बागडोर संभाली और अंत में 1923 में ही किसानांे का प्रशासन के साथ समझौता हो गया और बेगार प्रथा भी समाप्त हो गई। 

 

3. निमूचणा किसान आंदोलन (अलवर)-

   1924 में अलवर के महाराजा जयसिंह ने लगान की दरें बढ़ा दी। इसके विरोध में वहां के मेव किसानों ने 24 मई 1925 में निमूचणा गांव में सभा की। सेना ने इस सभा को घेरकर अंधाधुंध गोलियां चलाई, जिससे सैकड़ों किसान मारे गए। महात्मा गांधी ने इस कांड को जलियाँवाला बाग हत्याकांड से भी वीभत्स (भयंकर) बताया। इसे ‘‘Dyrism Double Distilled‘‘की संज्ञा दी। 

 

4. अलवर किसान आंदोलन – अलवर में जंगली सूअरों को अनाज खिलाकर पाला जाता था। ये सूअर किसानों की खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर देते थे। सूअरों को मारने पर पाबंदी थी। इस समस्या के निराकरण हेतु 1921 में किसानों ने आंदोलन शुरू किया व सरकार ने सूअरों को मारने की इजाजत दे दी। 

 

5. बूँदी किसान आंदोलन – 1926 में ‘पंडित नयनू राम शर्मा‘ के नेतृत्व में बूँदी में किसानों ने लगान व बेगार के विरोध में आंदोलन छेड़ा तथा डाबी (बूँदी) नामक स्थान पर किसान सम्मेलन में पुलिस ने गोली चला दी, जिससे स्टेज पर झ.डा गीत गाते समय नानक जी भील को गोली लगने से मृत्यु हो गई। 

 

6. दूधवा-खारा आंदोलन (बीकानेर) – बीकानेर रियायत (वर्तमान चूरू जिला) के दूधवा खारा गांव के किसानों ने जागीरदारों से अत्याचारों के विरूद्ध आंदोलन किया। इसका नेतृत्व वैद्य मघाराम व रघुवर दयाल गोयल ने किया। 

 

7. मारवाड़ कृषक आंदोलन – जयनारायण व्यास ने 1923 में मारवाड़ हितकारिणी सभा का गठन कर मारवाड़ के किसानांे में जागरूकता पैदा की। 

 

8. तौल-आंदोलन – 1920-21 में मारवाड़ सरकार द्वारा 100 तौले के सैर को 80 तौले के सैर में परिवर्तित करने के विरोध में चांदमल सुराणा व उनके साथियों द्वारा किया गया आंदोलन तौल आंदोलन कहलाया। 

 

राजस्थान के जनजातीय आंदोलन 

 

मीणाओं ने जयपुर रियायत के विरूद्ध और भीलों ने ब्रिटिश शासन के संरक्षित डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ व मेवाड़ राज्य के विरूद्ध आंदोलन किया। 

  1. भगत आंदोलन – गोविंद गिरी द्वारा भीलों में राजनीतिक व सामाजिक चेतना लाने हेतु किया गया। मुख्यतः डूंगरपुर व बांसवाड़ा में चलाया गया। 1883 ई. में गोविंद गिरी द्वारा ‘सम्प सभा‘ का गठन कर सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया गया। गोविंद गिरि ने मानगढ़ पहाड़ी (गुजरात) को अपना कार्यस्थल बनाया। जहां 7 दिसंबर 1908 में हजारों की संख्या में एकत्रित आदिवासियों पर सेना ने गोलियां चलाई। जिसमें लगभग 1500 भील मारे गये एवं गोविंद गिरि गिरफ्तार किये गये। उन्होंने अपना शेष जीवन कम्बाई (गुजरात) में बिताया। 

 

  1. एकी आंदोलन/भोमट भील कृषक आंदोलन – 1921 में मोतीलाल तेजावत (डूंगरपुर) द्वारा भीलों व गरासियों के हित में भोमट क्षेत्र में चलाया गया आंदोलन। इस सम्मेलन का उद्देश्य लोगों को भारी लगान व बेगार से मुक्ति दिलाना था। इसकी शुरूआत चित्तौड़गढ़ की राशमी तहसील के मातृकु.डिया से की गई है। इन्होंने 21 सूत्री मांग पत्र तैयार किया जिसे ‘‘मेवाड़ पुकार‘‘ कहा जाता है। 7 मार्च 1922 को नीमड़ा गांव में एकत्रित भीलों पर सैनिकों की अंधाधुंध फायरिंग से लगभग 1200 भील मारे गये। जिसे दूसरा जलियाँवाला हत्याकांड कहा गया। 

 

  1. बनवासी सेवा संघ – भीलों सहित सभी आदिवासियों में जनजागरण की लहर लाने के लिए भोगीलाल पांडया व अन्य समाज सुधारकों ने वनवासी सेवा संघ की स्थापना की। इन्होंने आदिवासी भीलो के लिए विद्यालय, प्रौढ़ शिक्षा केंद्र व छात्रावास आदि सुविधाएं उपलब्ध करवाई। 

 

  1. मीणा आंदोलन – 1924 ई. में जयपुर राज्य द्वारा पारित ‘क्रिमिनल क्राईम एक्ट‘ तथा जरायम पेशा कानून 1930 के तहत चौकीदार मीणाओं के सभी स्त्री-पुरूषों को रोजाना थाने में उपस्थिति देने के लिए पाबंद किया गया। जिसके विरोध में 1933 में मीणा क्षत्रिय महासभा का गठन हुआ। 1945 में मीणाओं को रोजाना थाने में उपस्थित होने से छूट दे दी गई। 1952 में जरायम पेशा कानून रद्द हो गया। 

 

जन आंदोलन व प्रमुख क्रांतिकारी गतिविधियाँ

26 जनवरी 1930 को चूरू के धमस्तूप के शिखर पर चन्दनमल बहड़, स्वामी गोपाल दास व साथियों ने तिरंगा फहराया। 

बीकानेर षडयंत्र अभियोग 1932-1931 में गोलमेज सम्मेलन (लंदन) में भाग लेने गये बीकानेर के महाराजा गंगासिंह के विरूद्ध चंदनमल बहड़ व साथियों ने ‘बीकानेर एक दिग्दर्शन‘ (बीकानेर राज्य की वास्तविक स्थिति हेतु) नामक पुस्तिका वितरित की। परिणामस्वरूप चन्दनमल बहड़, सत्यनारायण, स्वामी गोपालदास, लाला खूबराम सर्राफ व साथियों पर राजद्रोह का झूठा मुकदमा चला एवं कड़ी सजायें दी गई। जिसे बीकानेर षड़यंत्र अभियोग 1932 के नाम से जाना जाता है। 

डाबड़ा काण्ड -13 मार्च 1947 को डाबड़ा गांव (डीडवाना) में किसान सभा ओर मारवाड़ लोक परिषद् की ओर से बुलाया गया सम्मेलन जिसमें मथुरादास व अन्य कार्यकर्ता श्री मोतीलाल चौधरी के घर ठहरे थे। जिन पर डाबड़ा के जागीरदारों ने हमला कर कई किसानों को मौत के घाट उतार दिया। 

मेयो कॉलेज बम काण्ड 1934-1934 में वायसराय की अजमेर यात्रा के दौरान उनकी हत्या के इरादे से ज्वाला प्रसाद व फतेह चंद ने मेयो कॉलेज के समीप बम व हथियार छिपा दिए परंतु उनकी यह योजना विफल हो गई। 

  • 1 जनवरी 1930 को लार्ड कर्जन के दिल्ली दरबार में जाने से महाराणा फतेहसिंह को उनके दरबारी कवि व स्वतंत्रा सेनानी केसरी सिंह बारहठ ने ‘चेतावनी रा चूंगट्या‘ के 13 सोरठों के माध्यमों से रोका। 1911 में वे दिल्ली के जॉर्ज पंचम् के दरबार में भी शामिल नहीं हुये थे। 
  • स्वामी दयानंद सरस्वती – आर्य समाज के संस्थापक व सत्यार्थ प्रकाश के रचियता मई 1883 में जोधपुर महाराजा के निमत्रंण पर जोधपुर आये। विष देने के कारण अजमेर में 30 अक्टूबर 1883 में मृत्यु हुई। सत्यार्थ प्रकाश का अधिकतर भाग उदयपुर में लिखा गया। 
  • प्रयाण सभाएं – डूंगरपुर प्रजामण्डल द्वारा 1944 में रियासती शासन की अन्यायपूर्ण नीतियों के विरूद्ध जनजागृति हेतु आयोजित सभाएं। 
  • नरेन्द्र मंडल – 1919 में मांटेग्यू चेम्सफोर्ड अधिनियम के सुझाव के अनुसार 3 फरवरी 1921 में रियासती राजाओं ने नरेंद्र मंडल की स्थापना की। बीकानेर महाराजा गंगासिंह इसके प्रथम चांसलर बने। 
  • 12 नवंबर 1930 को लंदन में हुये प्रथम गोलमेज सम्मेलन में राजस्थान के राजाओं के प्रतिनिधि के रूप में बीकानेर महाराजा गंगासिंह, अलवर नरेश जयसिंह, धौलपुर महाराजा उदयभानसिंह ने भाग लिया। 

 

 प्रजामंडल आंदोलन 

  • 1938 में सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता में कांग्रेस का हरीपुरा अधिवेशन हुआ जिसमें रियासतों की जनता को अपने राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने हेतु अपने-अपने स्वतंत्र संगठन बनाकर आंदोलन करने व जनजागृति फैलाने का आह्वान किया गया। 1938 के बाद राजस्थान की लगभग सभी रियासतों में प्रजामण्डल की स्थापना हुई। जिनका मुख्य उद्देश्य रियासती कुशासन को समाप्त करना व नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार दिलाना और उत्तरदायी शासन की स्थापना करना था। 1939 में समस्त भारत की देशी रियासतांे के प्रजामण्डलों का अधिवेशन हुआ। जिसकी अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की।  
  1. जयपुर प्रजामण्डल –

स्थापना 1931 कर्पूरचन्द्र पाटनी व जमनालाल बजाज द्वारा। पुनर्गठन 1937 में जमनालाल बजाज व हीरालाल शास्त्री के सहयोग से हुआ। तब से यहां राजनीतिक कार्य आरंभ हुए। मार्च 1940 में जयपुर प्रजामंडल का पंजीकरण हो गया। 

  • 1942 में जयपुर प्रजामण्डल के अध्यक्ष हीरालाल शास्त्री व जयपुर रियायत के मध्य जेन्टलमेन्ट एग्रीमेंट समझौता हुआ। जिसके तहत् जयपुर प्रजामण्डल को भारत छोड़ो आंदोलन से पृथक रखा गया। जिससे जयपुर प्रजामण्डल में मतभेद हो गए ओर बाबा हरिश्चन्द के नेतृत्व में आजाद मोर्चा पृथक हो गया। 
  • 1945 में जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों से आजाद मोर्चा का जयपुर प्रजामण्डल में पुनः विलय हो गया। 1946 में टीकाराम पालीवाल ने राज्य में उत्तरादायी शासन स्थापित करने का प्रस्ताव पारित किया। 
  • 30 मार्च 1949 को जयपुर में उत्तरदायी शासन की स्थापना हुई। 

 

  1. मेवाड़ प्रजामण्डल-

उदयपुर में प्रजामण्डल की स्थापना का श्रेय माणिक्यलाल वर्मा को जाता है। 24 अप्रैल 1938 को श्री बलवंत सिंह मेहता की अध्यक्षता में मेवाड़ प्रजामण्डल की स्थापना हुई। 

  • माणिक्यलाल वर्मा ने मेवाड़ का वर्तमान शासन नामक पुस्तक से मेवाड़ में व्याप्त अव्यवस्था व तानाशाही की आलोचना की। 
  • 11 मई 1938 को मेवाड़ प्रजामण्डल पर लगा प्रतिबंध 22 फरवरी 1941 को हटाया गया। 
  • 25-26 नवंबर 1941 में माणिक्यलाल वर्मा की अध्यक्षता में इसका प्रथम अधिवेशन हुआ। 
  • 31 दिसंबर 1945 व 1 जनवरी 1946 को उदयपुर में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् का सातवां अधिवेशन हुआ जिसकी अध्यक्षता जवाहर लाल नेहरू ने की। 
  • 18 अप्रैल 1948 को उदयपुर का राजस्थान में विलय हो गया। 

 

  1. मारवाड़ प्रजामण्डल-
  • राजस्थान में सर्वप्रथम राजनैतिक कार्यक्रम मारवाड़ प्रजामण्डल ने आरंभ किया। 1918 में चांदमल सुराणा ने मारवाड़ सेवा संघ की स्थापना की। 1923 में जय नारायण व्यास, भंवरलाल सर्राफ आदि ने मारवाड़ सेवा संघ को मारवाड़ हितकारिणी सभा में परिवर्तित किया। 
  • गठन-1934 में भंवरलाल सर्राफ की अध्यक्षता में जयनारायण व्यास व आनंदमल सुराणा के प्रयासों से। 1936 में से असंवैधानिक घोषित किया गया। 
  • बालमुकुन्द बिस्सा की जेल में भूख हड़ताल करने से मृत्यु हो गई। 30 मार्च 1948 को जोधपुर में उत्तरादायी शासन की स्थापना व 3 मार्च 1949 को जोधपुर रियायत का राजस्थान में विलय हुआ। 
  • मारवाड़ हितकारिणी सभा ने ‘मारवाड़ की आस्था‘ व ‘पोपाबाई की पोल‘ नामक दो लघु पुस्तिकाएं प्रकाशित की। जिनमें मारवाड़ के किसानों की दयनीय दशा का चित्रण था। 
  • मारवाड़ प्रजामण्डल पर सबसे ज्यादा बार प्रतिबंध लगा था। 

 

  1. डूंगरपुर प्रजामण्डल-
  • डूंगरपुर में भोगीलाल पांड्या ने बागड़ सेवा मंदिर व सेवा संघ की स्थापना की। 1 अगस्त 1944 में भोगीलाल पांड्या की अध्यक्षता में डूंगरपुर प्रजामण्डल की स्थापना हुई। 
  • डूंगरपुर सरकार राजस्थान की ऐसी सरकार थी जिसने शिक्षण व विद्यालय संचालन को द.डनीय अपराध माना। अंत में जनवरी 1948 में यहां उत्तरदायी शासन स्थापित हुआ। 

 

  1. भरतपुर प्रजामण्डल –
  • स्थापना किशनलाल जोशी के प्रयासों से मार्च 1938 में। अध्यक्ष गोपीलाल यादव थे। 1939 में इसका नाम बदलकर भरतपुर प्रजा परिषद् किया गया। 18 मार्च 1948 को भरतपुर का मत्स्य संघ में विलय हो गया। 

 

  1. बीकानेर प्रजामण्डल-
  • स्थापना मघाराम वैद्य ने कोलकाता में 1936 में की। 

 

भारत छोड़ो आंदोलन व उत्तरदायी शासन

 

8 अगस्त 1942 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया। कोटा में जागृति पंडित नयनूराम शर्मा द्वारा। कोटा एकमात्र ऐसा राज्य था जहां जनता ने 1942 में शहर पर कब्जा कर तिरंगा फहराया व दो सप्ताह तक नगर प्रशासन पर कब्जा करके रखा। 

  • शाहपुरा प्रथम देशी राज्य था जहां जनतांत्रिक व पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्थापना हुई। 
  • जैसलमेर एकमात्र ऐसा राज्य था जिसने न तो भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया ओर न ही वहां उत्तरदायी शासन की स्थापना हुई। 
  • अवलर व जयपुर प्रजामण्डल भारत छोड़ो आंदोलन में लगभग निष्क्रिय रहे। 
  • 1948 में जयपुर रियायत में हीरालाल शास्त्री के नेतृत्व में उत्तरदायी शासन की स्थापना हुई। 
  • द्वितीय विश्व युद्ध में बीकानेर के महाराजा गंगासिंह संभवतः भारतीय राजाओं में प्रथम थे। जिन्होंने ब्रिटेन के सम्राट के सामने ब्रिटेन की ओर से महायुद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की ओर सेना लेकर यूरोप गये। 
  • राजस्थान में प्रथम लोक अदालत का गठन 1975 में कोटा में हुआ। 
  • राजस्थान में स्थायी प्रथम लोक अदालत मई 2000 में उदयपुर में स्थापित की गई। 
  • राजस्थान देश का प्रथम राज्य है जहां पूरे राज्य में लोक अदालतें स्थापित की गई। 

 

प्रमुख संस्थाएं व संघ
संस्था वर्ष संस्थापक
1. सम्प सभा 1883 गोविंद गिरि द्वारा सिरोही में स्थापित।
2.वीर भारत समाज 1912 विजय सिंह पथिक। 
3. उपरमाल पंच बोर्ड 1917 विजय सिंह पथिक।
4. राजस्थान सेवा संघ 

 

राजस्थान के विभिन्न प्रजामण्डल व संगठन

प्रजामण्डल स्थापना वर्ष संस्थापक, सदस्य
1. जयपुर प्रजामण्डल पुर्नगठन 1931

1936-37

कर्पूर चन्द्र पाटनी।

सेठ जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में, अर्जुनलाल सेठी, हीरालाल शास्त्री, चिरंजी लाल मिश्रा, कर्पूर चन्द्र पाटनी।

2. हाड़ौती प्रजामण्डल 1934 पं. नयूनराम शर्मा (अध्यक्ष), प्रभूलाल विजय।
3. मारवाड़ प्रजामण्डल 1934 भंवर लाल सर्राफ, अभयमल जैन, अचलेश्वरप्रसाद
4. बीकानेर प्रजामण्डल 1936 मघाराम वैद्य (अध्यक्ष), लक्ष्मण दास स्वामी। 
5. भरतपुर प्रजामण्डल (1939 में इसका नाम बदलकर भरतपुर प्रजामण्डल परिषद् रखा) 1938 गोपीलाल यादव (अध्यक्ष) किशन लाल जोशी, मा.आदित्येन्द्र, जुगल किशोर चतुर्वेदी, गौरी शंकर मित्तल।
6. मेवाड़ प्रजामण्डल 1938 बलवंत सिंह मेहता (अध्यक्ष), माणिक्य लाल वर्मा, भूरेलाल बया।
7. कोटा प्रजामण्डल 1938 पं. नयनूराम शर्मा (अध्यक्ष), अभिन्न हरितनसुख लाल मित्तल।
8. शाहपुरा प्रजामण्डल 1938 रमेश चंद्र ओझा, लादू राम व्यास, अभय सिंह डांगी।
9. अलवर प्रजामण्डल 1938 पं. हरीनारायण शर्मा, कुंज बिहारी मोदी। 
10. करौली प्रजामण्डल 1938 त्रिलोक चंद्र माथुर, चिरंजी लाल शर्मा, कंुवर मदन सिंह।
11. धौलपुर प्रजामण्डल 1938 कृष्णदत्त पालीवाल, ज्वालाप्रसाद जिज्ञासु, जोहरी लाल
12. सिरोही प्रजामण्डल 1939 गो कुल भाई भट्ट (अध्यक्ष), धर्म चंद सुराणा, रामेश्वर दयाल। 
13. किशनगढ़ प्रजामण्डल 1939 कांतिलाल चौथानी, जमाशाह।
14. कुशलगढ़ प्रजामण्डल 1942 भंवरलाल निगम (अध्यक्ष), कन्हैया लाल सेठिया।
15. बांसवाड़ा प्रजामण्डल 1943 भूपेन्द्रनाथ त्रिवेदी, धूलजी बाई, मणिशंकर नागर।
16. डूंगरपुर प्रजामण्डल 1944 भोगीलाल पांड्या (अध्यक्ष), हरिदेव जोशी, शिवलाल कोटड़िया, नानाभाई।
17. जैसलमेर प्रजामण्डल 1945 मीठालाल व्यास। 
18. प्रतापगढ़ प्रजामण्डल 1945 चुन्नीलाल, अमृत लाल पथिक। 
19. झालावाड़ प्रजामण्डल 1946 मांगीलाल (अध्यक्ष), कन्हैयालाल मित्तल। 
20. बूँदी  राज्य लोक परिषद् 1944 हरीमोहन माथुर (अध्यक्ष), बृज सुंदर शर्मा। 
21. भरतपुर कांग्रेस मंडल  1937  जगन्नाथ कक्कड़।

 

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